उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस: संघर्ष, बलिदान और एक सपने के साकार होने की कहानी



यह दिन उत्तराखंड के इतिहास में एक यादगार दिन के रूप में दर्ज है। इसी दिन करोड़ों पहाड़वासियों का दशकों पुराना — अपना अलग राज्य बनाने का सपना — साकार हुआ था। लाखों क्रांतिकारियों के संघर्ष और बलिदान के परिणामस्वरूप 21वीं सदी की शुरुआत में भारत के नक्शे पर एक नया राज्य अस्तित्व में आया — उत्तरांचल, जिसे बाद में 1 जनवरी 2007 को बदलकर उत्तराखंड नाम दिया गया।

राज्य गठन की यह कहानी केवल एक राजनीतिक निर्णय नहीं थी, बल्कि यह पहाड़ की जनता के वर्षों लंबे संघर्ष, आंदोलनों और बलिदानों का नतीजा थी।

उत्तराखंड आंदोलन की शुरुआत: 1979 से 2000 तक का सफर

उत्तराखंड राज्य निर्माण की आवाज पहली बार 25 जुलाई 1979 को गूंजी, जब मसूरी में उत्तराखंड क्रांति दल (UKD) की स्थापना की गई।
इसका गठन पर्वतीय जिलों को उत्तर प्रदेश से अलग कर एक नया राज्य बनाने की अवधारणा के साथ किया गया था।
इस ऐतिहासिक सम्मेलन की अध्यक्षता कुमाऊं विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. डी.डी. पंत ने की थी।

उत्तराखंड क्रांति दल ने पहाड़ की जनता की आवाज को संगठित रूप दिया। पार्टी के झंडे तले यह मांग एक बड़े राजनीतिक संघर्ष और जनआंदोलन का रूप लेती चली गई।
काशी सिंह ऐरी, भुवन चंद्र जोशी, बीना बहुगुणा, जसवंत सिंह बिष्ट, विपिन चंद्र त्रिपाठी और इंद्रमणि बडोनी जैसे नेताओं ने आंदोलन को नई दिशा दी।
इंद्रमणि बडोनी को तो ‘उत्तराखंड आंदोलन के जननायक’ के रूप में जाना जाता है।

उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन की निर्णायक घड़ी

1994 में जब मुलायम सिंह यादव सरकार ने उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र को अलग राज्य बनाने की मांग को ठुकरा दिया, तब आंदोलन अपने चरम पर पहुंच गया।
मसूरी से लेकर खटीमा, दिल्ली से लेकर नैनीताल तक आंदोलन की आग फैल गई।
2 अक्टूबर 1994 के खटीमा-काशीपुर गोलीकांड और मसूरी गोलीकांड जैसे दर्दनाक हादसे इस आंदोलन के इतिहास में दर्ज हो गए। इन बलिदानों ने अलग राज्य की मांग को राष्ट्रीय बहस बना दिया।

उत्तराखंड बना अलग राज्य

अंततः, लंबे संघर्ष के बाद 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखंड (तब उत्तरांचल) को भारत का 27वां राज्य घोषित किया गया। यह राज्य उत्तर प्रदेश के 13 पर्वतीय जिलों को मिलाकर बनाया गया था —देहरादून, हरिद्वार, पौड़ी गढ़वाल, टिहरी, उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग, नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत और उधमसिंह नगर।

 राजनीति में उत्तराखंड क्रांति दल की भूमिका

राज्य निर्माण के बाद 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में उत्तराखंड क्रांति दल ने 70 सीटों में से 4 सीटें जीतकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। काशी सिंह ऐरी उस समय पार्टी के प्रमुख चेहरे और अध्यक्ष बने।
हालांकि, आगामी वर्षों में पार्टी में गुटबाजी और विभाजन के चलते इसका प्रभाव लगातार घटता गया।

  • 2002: 4 सीटें
  • 2007: 3 सीटें
  • 2012: 1 सीट
  • 2017 व 2022: कोई सीट नहीं

पार्टी अब तक पाँच बार विभाजन का सामना कर चुकी है —1996, 2002, 2007, 2011 और 2013 में बड़े स्तर पर टूट हुई। 2011 में तो पार्टी ने न केवल अपनी मान्यता खो दी, बल्कि चुनाव चिन्ह से भी हाथ धोना पड़ा।

आज की स्थिति: अस्तित्व की जंग

राज्य गठन के पच्चीस वर्ष पूरे करने की दहलीज पर खड़ा उत्तराखंड आज जहां कई क्षेत्रों में प्रगति की नई मिसालें कायम कर रहा है, वहीं कई गंभीर चुनौतियों का भी सामना कर रहा है। 

उपलब्धियां 

  1. शिक्षा और साक्षरता में सुधार: राज्य में साक्षरता दर 79% से अधिक हो चुकी है। देहरादून, हल्द्वानी और पिथौरागढ़ जैसे शहर उच्च शिक्षा के नए केंद्र बन रहे हैं।
  2. पर्यटन और तीर्थाटन का विकास: चारधाम यात्रा, हेमकुंड साहिब, फूलों की घाटी, औली, नैनीताल और मसूरी जैसे स्थलों ने राज्य को देश के शीर्ष पर्यटन राज्यों में शामिल किया है। इससे राज्य की अर्थव्यवस्था को बड़ा सहारा मिला है।
  3. बिजली उत्पादन और जल संपदा: राज्य की नदियाँ (गंगा, यमुना, अलकनंदा, भागीरथी आदि) जल विद्युत परियोजनाओं के लिए बड़ी पूंजी साबित हो रही हैं। उत्तराखंड “ऊर्जा राज्य” के रूप में भी अपनी पहचान बना रहा है।
  4. सड़क और कनेक्टिविटी में सुधार: ऑल-वेदर रोड, चारधाम राजमार्ग परियोजना और रेलवे विस्तार ने दूरस्थ क्षेत्रों को जोड़ने का काम किया है।
  5. महिला सशक्तिकरण और पंचायत भागीदारी: ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएँ आज ग्राम पंचायतों और सहकारी समितियों में नेतृत्वकारी भूमिका निभा रही हैं।

चुनौतियां 

  1. बढ़ता पलायन: रोज़गार के अवसरों की कमी के कारण हजारों गांव लगभग खाली हो चुके हैं। पलायन आज भी पहाड़ की सबसे बड़ी समस्या है।
  2. असंतुलित विकास: विकास का अधिकांश हिस्सा देहरादून, हरिद्वार और हल्द्वानी जैसे मैदानी जिलों तक सीमित है, जबकि पर्वतीय जिलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी बनी हुई है।
  3. पर्यावरणीय असंतुलन और आपदाएं: जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित निर्माण और खनन ने राज्य को भूस्खलन, बाढ़ और ग्लेशियर टूटने जैसी आपदाओं के प्रति संवेदनशील बना दिया है।
  4. स्वास्थ्य सेवाओं की कमी: पहाड़ी इलाकों में अभी भी पर्याप्त डॉक्टर, दवाइयाँ और आधुनिक अस्पतालों की भारी कमी है।
  5. राजनीतिक अस्थिरता और क्षेत्रीय दलों का ह्रास: उत्तराखंड की राजनीति अब राष्ट्रीय दलों तक सीमित होती जा रही है। स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित क्षेत्रीय दलों जैसे उत्तराखंड क्रांति दल का कमजोर होना जनसरोकारों की आवाज को कमजोर कर रहा है।


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